Thursday 10 November 2011

क्षणिकाएं



=॥= १ =॥=
"तुम बिन"

तुम बिन
अकेली शाम के
डूबे हुए सूरज ने बोला
मैं भी विरह की आग में
जलता रहा हूँ
दिन भर चहेती चाँदनी की चाह में
फ़िरता रहा
फ़िरता रहा हूँ ॥


=॥= २ =॥=
"बिन तुम्हारे"

हज़ारों ख्वाहिशें
पूरी हुईं
एक बस
तुमको ही मैं ना पा सका
और जब तुम ही नहीं हो
पास मेरे
सब कुछ ही मेरे पास है
तो किस लिये है ?
किस के लिये है ?

सम्पूर्णता मेरी
थीं तुम,
बिन तुम्हारे
पात बिन तरु की तरह,
रेत बिन मरु की तरह ,
शैल बिन मेरु की तरह
हो गया हूँ,
क्या कहूँ,
क्या-क्या न खुद का
खो गया हूँ ।


   =॥= ३ =॥=

    "उस रोज़"


उस रोज़
जब छू कर गई
चंचल हवा,

उस रोज़
केसर की कली सी शाम
जब मुसका उठी,

उस रोज़
सूने रास्ते ने टोक कर
मुझसे कहा,

फ़ूलों में, तितली में,
फ़िज़ां में ढूँढ़ते हो
जो सजीले रंग, चटकीले

अपने दामन में ही
ढूँढ़ो, उस रंगरेज़ का मकाँ
अपने सपनों में भी भर लो
इन्द्रधनु का आसमाँ

            --- आशुतोष कुमार झा