Thursday, 9 November 2017

और दिल्ली काली हो गई

       दिल्ली में सब तरफ धुआं धुआं है। धुएं से तकलीफ है। धुआं लोगों की सांसो में और उनके जीवन में दाखिल हो गया है ।आंखें चुभ रही हैं। गले जल रहे हैं। घर से बाहर निकलना तक मुहाल है और इस अवसर पर बाहर समाचार चैनलों के कैमरे उजाला फैलाए हुए हैं। राजनीति अपना काम पूरी तन्मयता से कर रही है । आरोप और प्रत्यारोप के वाण इस ओर से उस ओर लगातार सफर कर रहे हैं। इतना कुछ हो रहा है मगर यह सब अंधेरे के लिए हो रहा है। वह अंधेरा जो धुएं से पैदा हुआ । धुआं कैसे पैदा हुआ और उसे कैसे रोका जाए इस पर ज्यादा बात नहीं हो रही। मेरा विचार है इन सवालों पर बात हो, संवाद हो तो , हल भी निकलेगा और लोगों को थोड़ी राहत भी मिलेगी ।
लोग राहत मांग रहे हैं और उन्हें खबरें मिल रही हैं या राजनीतिक बयान ।
बहुत दुखद है यह।

Thursday, 10 November 2011

क्षणिकाएं



=॥= १ =॥=
"तुम बिन"

तुम बिन
अकेली शाम के
डूबे हुए सूरज ने बोला
मैं भी विरह की आग में
जलता रहा हूँ
दिन भर चहेती चाँदनी की चाह में
फ़िरता रहा
फ़िरता रहा हूँ ॥


=॥= २ =॥=
"बिन तुम्हारे"

हज़ारों ख्वाहिशें
पूरी हुईं
एक बस
तुमको ही मैं ना पा सका
और जब तुम ही नहीं हो
पास मेरे
सब कुछ ही मेरे पास है
तो किस लिये है ?
किस के लिये है ?

सम्पूर्णता मेरी
थीं तुम,
बिन तुम्हारे
पात बिन तरु की तरह,
रेत बिन मरु की तरह ,
शैल बिन मेरु की तरह
हो गया हूँ,
क्या कहूँ,
क्या-क्या न खुद का
खो गया हूँ ।


   =॥= ३ =॥=

    "उस रोज़"


उस रोज़
जब छू कर गई
चंचल हवा,

उस रोज़
केसर की कली सी शाम
जब मुसका उठी,

उस रोज़
सूने रास्ते ने टोक कर
मुझसे कहा,

फ़ूलों में, तितली में,
फ़िज़ां में ढूँढ़ते हो
जो सजीले रंग, चटकीले

अपने दामन में ही
ढूँढ़ो, उस रंगरेज़ का मकाँ
अपने सपनों में भी भर लो
इन्द्रधनु का आसमाँ

            --- आशुतोष कुमार झा














Monday, 3 October 2011

एक ग़ज़ल

इस  तरह  खुदगर्ज़ ना बन जाइए ।
माल बहुत है ज़रा धीरे-धीरे खाइए ॥

जल जाए दिल्ली या मुम्बई जाए दहल।
आप  अपनी-अपनी  रोटियाँ  पकाइए ॥

दर्द  होता है दिल का  दुश्मन हुज़ूर ।
हमारी दुश्वारियाँ दिल से न लगाइए ॥

कैसे  जाएगी  गुलदस्तों  की  रवायत ।
आप लीजिये और इन्हें भी दिलवाइए ॥

खेत-माटी, खाद-पानी, गाँव,  भारत-भारती ।
आप इण्डिया की सोचिये, शेष भूल जाइए ॥

सरकार के सालार,  पगड़ी में रहें, बेशक ।
अर्ज़ बस इतनी, हमें, टोपी मत पहनाइए ॥

सरकार चलाने का हुनर जानने वालों ।
पंजे को बक्शिये, थप्पड़ मत बनाइए ॥

हर पाँच साल बाद करती है फ़ैसला ।
जनता नहीं गूंगी,  मत  सितम ढ़ाइए ॥

आप ने समझा हमें गाफ़िल,  इनायत ।
कल का मेन्यू मैडम जी से पूछ आइए ॥

बर्बाद कर दिया चमन को बागबां ने खुद।
अब तो  कलियों  पे  ज़रा  तरस  खाइए ॥

      ---आशुतोष कुमार झा



 

एक ग़ज़ल

आपकी महफ़िल में आना चाहता हूँ ।
खुदगर्ज़  तनहाई भुलाना चाहता हूँ ॥

सर्द  मौसम  की  सुबह कांपते लब से ।
प्यार का गुनगुना गीत गाना चाहता हूँ ॥

शाख  से  टूट  कर  बिखर गया कैसे ।
एक पत्ते की दासताँ सुनाना चाहता हूँ ॥

बेड़ियाँ  मेरे  पाँवों की जानती हैं सबब ।
मैं आसमां के उस पार जाना चाहता हूँ ॥

लौट आए वफ़ा का मौसम तो  कहना ।
मैं इन्तज़ार का कोई बहाना चाहता हूँ ॥

पास  खंज़र  नहीं  तेरे  पर  सच  ये है ।
इन्हीं हाथों से कोई ज़ख्म खाना चाहता हूँ ॥

इश्क किसी से और कयामत किसी पर ।
मैं राहे वफ़ा का सच दिखाना चाहता हूँ ॥

तुम्हारी  हसरतों  के  पर, मेरा आसमाँ ।
मैं क्या कहूँ, कितना कमाना चाहता हूँ ॥

बया का घोंसला भी कम नहीं जन्नत से ।
मैं दरख़्त के साये में  ठिकाना चाहता हूँ ॥

किन हाथों दिल का साज़ रख दिया मैंने ।
उठती है टीस जब भी बजाना चाहता हूँ ॥

            --- आशुतोष कुमार झा







Tuesday, 27 September 2011

गुनगुनाइए

एक गीत

ख्वाबों में अकसर बुनता था
हर्फ़ों   के   मोती   चुनता  था
गीत  वही  अपने  किस्से  का
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं ॥


सागर  तल  पर  रेती  बिखरे
नील गगन पर बादल निखरे
लहरों  का आना और जाना
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं॥


बरस  पुरानी  बात  हो  गई
चेहरे  पर   बरसात   हो  गई
कितनी कलियाँ,कितने पत्ते
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं॥


तनहा  रात  चली  आती  अब
छत पर अकसर सो जाती अब
तारों  से  तरकीबी  बातें
याद नहीं,कुछ याद नहीं॥


कमरा  खाली , मुँह  पर जाली
इस  उपवन  का  कोई न माली
कितने  पाँव  रौंद  कर  निकले
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं  ॥


किस  सूरज  को  याद   करूं
किस चन्दा से फ़रियाद करूं
आसमान कब गिरवी रक्खा
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं॥


हुस्न का मौसम फिर कर आया
रंग  एक  ना  मुझको  भाया
सोहबत में कितने दिल टूटे
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं॥



दिल जाने किस की याद में रोता
कौन  किसी  का  अपना  होता
लैला - हीर  के  झूठे  किस्से
याद  नहीं , कुछ  याद  नहीं॥


         ---आशुतोष कुमार झा














 

Tuesday, 20 September 2011

विदा होते बरसात को

रस सिक्त 
कर गए 
हर रिक्त 
झमाझम बरसा कर 
संगीत  |
दिन गए विगत
अलसाए .....
कुम्हलाए प्रणय में बीत |


तुम आए
श्याम सखा बन कर
खेला नभ में जी भर
अंजुली न खाली छोड़ी
पत्तों - शाखों में 
मद - मदन्त
ज़बरन
अंकित किया
जलद का
चुम्बन अनंत |


भेजा अमोल उपहार
कृषक के जीवन में
अंकुर अशेष 
मल्हार |


अब विदा ले रहे
कहें, रुक जाओ
मत ही जाओ
बहुत बाकी हैं बातें
जन मन की
किन्तु यह हठ होगी |


पलकें देखेंगी राह
फिर अगले साल
आखेट पर आना
नव श्रृंगार कर के आना 
न चलेगा कोई बहाना
जल्दी ही आना
शुभ विदा प्रिय जलद - कुञ्ज










             ---- आशुतोष कुमार झा



Friday, 16 September 2011

अक्षर अनंत: २३ सितम्बर , भगत सिंह जयन्ती पर विशेष

अक्षर अनंत: २३ सितम्बर , भगत सिंह जयन्ती पर विशेष: पुनर्जन्म आज याद करते हुए तुम्हें, तुम्हारी जयन्ती पर स्वीकारता हूँ दो टूक कि तुम्हारे बाद न रख सके हम जलाए- क्रांति का ज्वाल, चेत...