पुनर्जन्म
आज
याद करते हुए
तुम्हें, तुम्हारी जयन्ती पर
स्वीकारता हूँ दो टूक
कि तुम्हारे बाद
न रख सके हम
जलाए- क्रांति का ज्वाल,
चेतना की मशाल
माँगती थी रक्त
और नहीं, बिल्कुल नहीं था
वक़्त
हमारे पास ।
काल के पहिये की चाल
हो चली थी तेज़,
बहुत तेज़
और उसी पहिये से चिपक कर
देश-दुनिया भूल कर
विकास और तरक्क़ी के पंख तोल कर
अमेरिकी घोंसलों में
जा चुके थे हम
अपनी धरती छोड़ कर ।
तरुणाई की उमंगें,
बदलाव की चाहत
और
एक खूबसूरत दुनिया के सपने
खो कर ।
जाने इतिहास की किस गुहा में
हो चुके थे गुम
कभी के---
तुम्हारी शहादत बिसारकर ।
इतिहास की किताबों में
कुछ हर्फ़ तुम्हारे नाम ---
कुछ मूर्तियाँ , स्मारक
और व्याख्यान ।
अब इसी तरह
याद रखना चाहते हैं हम ।
तुम्हें अपनी क्रांतिकारिता के साथ
हमारी चेतना में
दाखिल होने के पहले ही ,
बदल देंगे अपना रास्ता हम
क्योंकि
तुम्हारा रास्ता तो जाता है
सीधे कैदखाने और फ़ाँसी की ओर ।
जैसे-जैसे बदल रहा है
देश अपनी अस्मिता
न्याय के लिये- संघर्ष
प्रतिरोध के लिये- साहस
अधिकार के लिये- तेवर
और
जन मानस का जुझारुपन
बदल रहे हैं निरन्तर---
अपनी परिभाषाएं ।
परिवर्तन के लिये उठते हाथ
जड़ने लगे हैं
अपने महलों में सोने की शहतीर ।
आस्था के गुम्बद
और आसमान छूती अट्टालिकाएं
दे रही हैं नित-निरंतर
धर्म और विश्वास को नया आयाम
विकास के मौजूदा मॉडल को
स्वीकृति का पैग़ाम ।
ऐसे में बड़ा मुश्किल है
यह स्वीकार करना
कि सन सैंतालिस में
अंग्रेज़ देश छोड़ गये थे
या
बदल कर अपने चेहरे का रंग
ज़्यादा क्रूर, असंवेदनशील,
फ़ूट डालने में माहिर
पूंजीवादी लोकाचार
के असभ्य पैरोकार
भ्रष्टाचार के असंख्यावतार
हो कर
चिपक गए थे
हमारी किस्मत बन कर ।
हमने तुम्हारे बलिदान को
फ़िल्मी कथाओं में तब्दील कर दिया
जनता के पक्ष में उठती
तुम्हारी हर इक आवाज़ को
रौंद डाला- तेज़ फ़िल्मी धुनों तले ।
ऐसे में तुम्हारे कथन
" मैं नास्तिक क्यों हूँ "
और
" बम का दर्शन "
बन गए हैं अनजान भाषा के शब्द
जिनमें सिर खपाना कोई नहीं चाहता ।
लाल रंग देखते ही
थम-सहम जाना
इस कदर शुमार हो गया है
हमारी आदतों में
कि अपने लहू,
तुम्हारी शहादत
और क्रांति के परचम से
सहमते हुए,
हर संभव दूरी बनाते हुए
देख रहे हैं इसे--
बस ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह
’हरी’ होने का इन्तज़ार करते हुए ।
श्रद्धांजलि की
रस्मी संजीदगियाँ भी
सिमट गई हैं--
राजघाट से शक्तिस्थल तक ।
सत्ताधीशों के चहेतों का गुणगान
हो रहा है
साप्ताहिक व्रत की पूजा, कथा, आरती की तरह ।
सत्ता का पाखण्ड
हर दलाल के गुलाल में लिपट कर
दिल्ली से चौपाल तक पहुँच कर
शामियाने की तरह
तन गया है
जहाँ हर ज़ेबकतरे से उम्मीद की जाती है
कि शामिल हो प्रार्थना सभा में
पूरी पवित्रता,
पूरी सादगी,
पूरी श्रद्धा और
विनम्रता के साथ ।
गांधी छाप छापने वाले ’हाथ’
पाते हैं गांधी पार्टी का चरित्र प्रमाण पत्र
जनता के हाथों
इन्हीं घाटों और स्थलों के दर्मयान
’राम धुन’ सुनते हुए।
इतने सालों में
सरकारी बही खातों में
अवतरित हो चुके हैं अनगिनत ’महात्मा’
फ़िर आज तुम्हें याद करने की
सचमुच किसे है ज़रूरत ?
खाए-अघाए लोगों ने
बना लिए हैं
अपने-अपने भगत सिंह
अपनी सुविधा के हिसाब से
गढ़ ली हैं
तुम्हारे चरित्र की सीमाएं ।
तुम्हें राष्ट्र नायक मानने में
काफ़ी उलझन है ।
अफ़सोस है
तुम इक्कीसवीं सदी के चलन में
फ़िट नहीं बैठते,
क्योंकि विद्रोह की परम्परा,
सुलगते अंगारों सी विचारधारा,
जनता के पक्ष में अकेले डटने की आदत,
और बलिदान का जज़्बा,
आउटडेटेड मोरल्स हैं
इसलिए महँगी कारों में पीछे
तसवीरें छपवा कर
कुछ लोग आमादा हैं--
तुम्हें सिक्ख बनाने पर ।
तुम नहीं जानते
यह सुपर ब्रांडों का युग है
इसलिए उत्साहित हैं
कुछ सेल्स अधिकारी
क्योंकि निकट भविष्य में
आमूल परिवर्तनवादी मदारी
तुम्हारे नाम पर
विचारधारा की चौपाया दुह कर
सत्ता शिखर तक रेस लगाएँगे
जान भी नहीं पाओगे
मार्क्स के बाद
ये तुम्हारे नाम की सीढ़ी लगाएँगे ।
आज तुम्हें सचमुच याद करने की
ज़रूरत किसे है ?
जिसे अपदस्थ करना चाहते थे तुम
वह सरकार
नए पहनावे में
दिल्ली की गद्दी पर
काबिज़ है अब तक
अपने आस-पास
ज़ेड प्लस सुरक्षा घेरा बनाए
जनता की इच्छा और
हर वाज़िब माँग पर
झुंझलाती,
लाठी, गोली, गिरफ़्तारी की भाषा में
बतियाती
हाथों पर लगा ताज़ा खून
काफ़ी है यह बताने के लिए
कि एक धुंधला सा अंधेरा है
जम्हूरियत के नाम पर ।
और सचमुच जिन्हें ज़रूरत है
वे यह नहीं जानते,
सचमुच नहीं जानते
कि सौ साल पहले
पैदा हुआ था एक भगत सिंह
उनके हक़ के लिए,
बिल्कुल उन्हीं के लिए
संसद को हिला डाला था
बहरी सरकार को
सोते से जगा डाला था
सज़ा मिली
आवाज़ उठाने की,
चेतना फ़ैलाने की ।
तब अंग्रेज़ी राज था
भयभीत समाज था,
तब भी
चढ़ गया था फ़ाँसी
हँसते-हँसते
बिल्कुल उन्हीं के लिए ।
और ये भी
कि पैदा हो सकता है
दोबारा-तिबारा वही भगत सिंह
उन्हीं में से
आज , एकदम आज के दौर में
बिल्कुल उन्हीं के लिए
स्वराज के असली सपनों के
पूरा होने तक ।
अफ़सोस
जनता नहीं जानती ।
---- आशुतोष कुमार झा
आज
याद करते हुए
तुम्हें, तुम्हारी जयन्ती पर
स्वीकारता हूँ दो टूक
कि तुम्हारे बाद
न रख सके हम
जलाए- क्रांति का ज्वाल,
चेतना की मशाल
माँगती थी रक्त
और नहीं, बिल्कुल नहीं था
वक़्त
हमारे पास ।
काल के पहिये की चाल
हो चली थी तेज़,
बहुत तेज़
और उसी पहिये से चिपक कर
देश-दुनिया भूल कर
विकास और तरक्क़ी के पंख तोल कर
अमेरिकी घोंसलों में
जा चुके थे हम
अपनी धरती छोड़ कर ।
तरुणाई की उमंगें,
बदलाव की चाहत
और
एक खूबसूरत दुनिया के सपने
खो कर ।
जाने इतिहास की किस गुहा में
हो चुके थे गुम
कभी के---
तुम्हारी शहादत बिसारकर ।
इतिहास की किताबों में
कुछ हर्फ़ तुम्हारे नाम ---
कुछ मूर्तियाँ , स्मारक
और व्याख्यान ।
अब इसी तरह
याद रखना चाहते हैं हम ।
तुम्हें अपनी क्रांतिकारिता के साथ
हमारी चेतना में
दाखिल होने के पहले ही ,
बदल देंगे अपना रास्ता हम
क्योंकि
तुम्हारा रास्ता तो जाता है
सीधे कैदखाने और फ़ाँसी की ओर ।
जैसे-जैसे बदल रहा है
देश अपनी अस्मिता
न्याय के लिये- संघर्ष
प्रतिरोध के लिये- साहस
अधिकार के लिये- तेवर
और
जन मानस का जुझारुपन
बदल रहे हैं निरन्तर---
अपनी परिभाषाएं ।
परिवर्तन के लिये उठते हाथ
जड़ने लगे हैं
अपने महलों में सोने की शहतीर ।
आस्था के गुम्बद
और आसमान छूती अट्टालिकाएं
दे रही हैं नित-निरंतर
धर्म और विश्वास को नया आयाम
विकास के मौजूदा मॉडल को
स्वीकृति का पैग़ाम ।
ऐसे में बड़ा मुश्किल है
यह स्वीकार करना
कि सन सैंतालिस में
अंग्रेज़ देश छोड़ गये थे
या
बदल कर अपने चेहरे का रंग
ज़्यादा क्रूर, असंवेदनशील,
फ़ूट डालने में माहिर
पूंजीवादी लोकाचार
के असभ्य पैरोकार
भ्रष्टाचार के असंख्यावतार
हो कर
चिपक गए थे
हमारी किस्मत बन कर ।
हमने तुम्हारे बलिदान को
फ़िल्मी कथाओं में तब्दील कर दिया
जनता के पक्ष में उठती
तुम्हारी हर इक आवाज़ को
रौंद डाला- तेज़ फ़िल्मी धुनों तले ।
ऐसे में तुम्हारे कथन
" मैं नास्तिक क्यों हूँ "
और
" बम का दर्शन "
बन गए हैं अनजान भाषा के शब्द
जिनमें सिर खपाना कोई नहीं चाहता ।
लाल रंग देखते ही
थम-सहम जाना
इस कदर शुमार हो गया है
हमारी आदतों में
कि अपने लहू,
तुम्हारी शहादत
और क्रांति के परचम से
सहमते हुए,
हर संभव दूरी बनाते हुए
देख रहे हैं इसे--
बस ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह
’हरी’ होने का इन्तज़ार करते हुए ।
श्रद्धांजलि की
रस्मी संजीदगियाँ भी
सिमट गई हैं--
राजघाट से शक्तिस्थल तक ।
सत्ताधीशों के चहेतों का गुणगान
हो रहा है
साप्ताहिक व्रत की पूजा, कथा, आरती की तरह ।
सत्ता का पाखण्ड
हर दलाल के गुलाल में लिपट कर
दिल्ली से चौपाल तक पहुँच कर
शामियाने की तरह
तन गया है
जहाँ हर ज़ेबकतरे से उम्मीद की जाती है
कि शामिल हो प्रार्थना सभा में
पूरी पवित्रता,
पूरी सादगी,
पूरी श्रद्धा और
विनम्रता के साथ ।
गांधी छाप छापने वाले ’हाथ’
पाते हैं गांधी पार्टी का चरित्र प्रमाण पत्र
जनता के हाथों
इन्हीं घाटों और स्थलों के दर्मयान
’राम धुन’ सुनते हुए।
इतने सालों में
सरकारी बही खातों में
अवतरित हो चुके हैं अनगिनत ’महात्मा’
फ़िर आज तुम्हें याद करने की
सचमुच किसे है ज़रूरत ?
खाए-अघाए लोगों ने
बना लिए हैं
अपने-अपने भगत सिंह
अपनी सुविधा के हिसाब से
गढ़ ली हैं
तुम्हारे चरित्र की सीमाएं ।
तुम्हें राष्ट्र नायक मानने में
काफ़ी उलझन है ।
अफ़सोस है
तुम इक्कीसवीं सदी के चलन में
फ़िट नहीं बैठते,
क्योंकि विद्रोह की परम्परा,
सुलगते अंगारों सी विचारधारा,
जनता के पक्ष में अकेले डटने की आदत,
और बलिदान का जज़्बा,
आउटडेटेड मोरल्स हैं
इसलिए महँगी कारों में पीछे
तसवीरें छपवा कर
कुछ लोग आमादा हैं--
तुम्हें सिक्ख बनाने पर ।
तुम नहीं जानते
यह सुपर ब्रांडों का युग है
इसलिए उत्साहित हैं
कुछ सेल्स अधिकारी
क्योंकि निकट भविष्य में
आमूल परिवर्तनवादी मदारी
तुम्हारे नाम पर
विचारधारा की चौपाया दुह कर
सत्ता शिखर तक रेस लगाएँगे
जान भी नहीं पाओगे
मार्क्स के बाद
ये तुम्हारे नाम की सीढ़ी लगाएँगे ।
आज तुम्हें सचमुच याद करने की
ज़रूरत किसे है ?
जिसे अपदस्थ करना चाहते थे तुम
वह सरकार
नए पहनावे में
दिल्ली की गद्दी पर
काबिज़ है अब तक
अपने आस-पास
ज़ेड प्लस सुरक्षा घेरा बनाए
जनता की इच्छा और
हर वाज़िब माँग पर
झुंझलाती,
लाठी, गोली, गिरफ़्तारी की भाषा में
बतियाती
हाथों पर लगा ताज़ा खून
काफ़ी है यह बताने के लिए
कि एक धुंधला सा अंधेरा है
जम्हूरियत के नाम पर ।
और सचमुच जिन्हें ज़रूरत है
वे यह नहीं जानते,
सचमुच नहीं जानते
कि सौ साल पहले
पैदा हुआ था एक भगत सिंह
उनके हक़ के लिए,
बिल्कुल उन्हीं के लिए
संसद को हिला डाला था
बहरी सरकार को
सोते से जगा डाला था
सज़ा मिली
आवाज़ उठाने की,
चेतना फ़ैलाने की ।
तब अंग्रेज़ी राज था
भयभीत समाज था,
तब भी
चढ़ गया था फ़ाँसी
हँसते-हँसते
बिल्कुल उन्हीं के लिए ।
और ये भी
कि पैदा हो सकता है
दोबारा-तिबारा वही भगत सिंह
उन्हीं में से
आज , एकदम आज के दौर में
बिल्कुल उन्हीं के लिए
स्वराज के असली सपनों के
पूरा होने तक ।
अफ़सोस
जनता नहीं जानती ।
---- आशुतोष कुमार झा