Monday 3 October 2011

एक ग़ज़ल

आपकी महफ़िल में आना चाहता हूँ ।
खुदगर्ज़  तनहाई भुलाना चाहता हूँ ॥

सर्द  मौसम  की  सुबह कांपते लब से ।
प्यार का गुनगुना गीत गाना चाहता हूँ ॥

शाख  से  टूट  कर  बिखर गया कैसे ।
एक पत्ते की दासताँ सुनाना चाहता हूँ ॥

बेड़ियाँ  मेरे  पाँवों की जानती हैं सबब ।
मैं आसमां के उस पार जाना चाहता हूँ ॥

लौट आए वफ़ा का मौसम तो  कहना ।
मैं इन्तज़ार का कोई बहाना चाहता हूँ ॥

पास  खंज़र  नहीं  तेरे  पर  सच  ये है ।
इन्हीं हाथों से कोई ज़ख्म खाना चाहता हूँ ॥

इश्क किसी से और कयामत किसी पर ।
मैं राहे वफ़ा का सच दिखाना चाहता हूँ ॥

तुम्हारी  हसरतों  के  पर, मेरा आसमाँ ।
मैं क्या कहूँ, कितना कमाना चाहता हूँ ॥

बया का घोंसला भी कम नहीं जन्नत से ।
मैं दरख़्त के साये में  ठिकाना चाहता हूँ ॥

किन हाथों दिल का साज़ रख दिया मैंने ।
उठती है टीस जब भी बजाना चाहता हूँ ॥

            --- आशुतोष कुमार झा







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