Tuesday 19 July 2011

एक ग़ज़ल

                           ग़ज़ल                                                                                         
इस  कदर  जर्रे  को  मत  ठुकराईये ।
हुक्मरानों की तरह मत पेश आईये ॥

हो अगर संजीदा तो दुश्मन भी काम का ।
मौका  पड़े  तो  दुश्मनी भी आज़माईये ॥

कांटों से ,ज़ख़्म से , सितम से टूटते नहीं ।
दुर्गम  हों  रास्ते  तभी भी मुस्कुराइये ॥

उठ जाए ना कहीं दोस्तों से ही यकीं।
ऐसे  न  दोस्ती  का  हक   जताईये ॥

प्यार में बंदिश नहीं  कोई मैं मानता ।
रूठिये बेशक मगर फिर मान जाईये ।।

ऐसे सवाल जिनसे बढ़ती हों उलझनें ।
मत पूछिये  थोड़ा  तो तरस खाईये ॥

मुंसिफ भी, मुजरिम भी दोनों हैं साथ-साथ ।
इंसाफ  का  तकाजा  अब  भूल  जाईये ।।

अब  इन्क़लाब मुमकिन  लगता नहीं मुझे ।
फिर राज घाट चलिये और भजन गाईये ॥


अपना था मुकद्दर जो, किसी गैर को सौंपा ।
सरकार बदलिये या खुद ही बदल जाईये ॥


      ----- आशुतोष कुमार झा

Saturday 16 July 2011

एक और कविता

अपना इतिहास
मत सुनाओ मुझे    
आत्मा पर भाषण   
मत डराओ परमात्मा के नाम पर
सरग- नरक के झमेले में मत उलझाओ 
अपना ही आत्म-बल जगाओ
हिम्मत से काम लो,
आओ , श्रम के उचित मूल्य
और काम के घंटे पर बात करो ।

नहीं चाहता मैं
इतिहास की नाजायज़ औलाद बनना    
दिग्विजेताओं के जूते ढोना पसन्द नहीं                                              
सिंहासन की कठपुतलियों मे शामिल होना
मेरा स्वभाव नहीं ।
  
मुझे , नहीं तरना तीरथों की सीढ़ियाँ चढ़कर
नहीं होना पबित्तर 
अमृत सरोवर में डुबकी लगाकर ,
मुझे धरम-जात में मत लपेटो
ए चोंगे वाले ,
मेरे सामने से अपना धंधा समेटो
मेरे कान में मत फूंको मंतर,
दूर रखो कंठी - माला,
दे सकते हो तो.......
मुझे काम दो.......
मेरे हाथों को औज़ार दो.......

मैं आस्था के खंडहरों में भटकना नहीं चाहता,
परम-ज्ञान की अतल गहराइयों में
खोने का स्वांग भी
भरना नहीं चाहता ,
मैं खेतों , खलिहानों , कारखानों से लगकर
उनका ही होना चाहता हूँ ।

कितनी भी जहरीली हों राजनीति की लताएं
समझो, सहो और बदलो
बेशक, जले हुए हैं
मेरे ये हाथ दोनों
पर इस नाम पर चल रहे विमर्शों पर
मुझे भी खोलना है
अपना मुँह ।

मुझे रीढ़विहीन जंतु बनाकर
अपने बिलों में मत धकेलो
मत नचाओ अपने तर्ज की वीणा पर
दुग्ध-पात्र धरकर मत बहलाओ ।

मुझे नहीं सुनना अल्लाह का करम
मत गाओ रामधुन
यदि ज़बान है तो
महल और झोंपड़ी
रोटी और भू्ख
ऊँच और नीच से
भेद भरे समाज पर
उसे खोलो ।

तिजोरियों में कैद गरीबों की आह का हिसाब दो
गहनों से लदीं सुंदर मूर्तियों
पर सोने का चढ़ावा
चढ़ाते किसी मनुष्य विरोधी की तस्वीर मत दिखाओ,
अगर बताना ही है तो
मंदिरों के आगे
जुटने वाली भिखारियों की भीड़ का कारण समझाओ।

पहचानी है मैंने तुम्हारी चाल
हमें शतरंज की गोटियाँ मत बनाओ,
यदि हिम्मत है तो
श्रम के उचित मूल्य
और काम के घंटे पर बात करो ।

       -----आशुतोष कुमार झा








Thursday 14 July 2011

इस देश का यारों क्या कहना

बम्बई में आखिर होता क्या है ????

एक धमाका सर ए आम 
कभी दोपहर ,कभी शाम 
सांसत में लोगों की जान 
मिला मीडियाको फिर काम 
खाकी का चैन हराम
 नेताओं का वही बयान
सब करवाए पाकिस्तान
सुनो साहिबों ,सुनियो जान 
बहुत खा चुके हम सब पान 
छर्रों की अब खुली दुकान 
प्योर मेड इन पाकिस्तान 
एक धमाका काम तमाम 
खा कर बोलो जय श्री राम 
मेरा भारत देश महान  ||

----- आशुतोष कुमार झा 

Sunday 10 July 2011

सावन गीत


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Saturday 9 July 2011

कवितायें

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नहीं जान पाया कब तुमने हृदय छुआ
नहीं जान पाया कब तुमसे प्रेम हुआ 

उचटा था मन ,
भर कर जीवन
आँखों की सरिता से तुमने
भीतर कहीं प्रवेश किया।

मीठा सा इक दर्द कहीं महसूस हुआ
नहीं जान पाया कब तुमसे प्रेम हुआ

बने पलक बिछौना ,
हुआ मुश्किल जीना
साँसों में भर कर सुवास ,
फूटा वसंत कब पहली बार

कब सावन की बूंदों का संस्पर्श हुआ
नहीं जान पाया कब तुमसे प्रेम हुआ

जैसे मोती हों लब पर ,
तू आई रहमत बन कर
नैय्या डगमग मझधार ,
बनीं तुम मेरी खेवनहार

कब तुम्हें सौंप कर खुद को मैं निश्चिन्त हुआ
नहीं  जान  पाया  कब  तुमसे  प्रेम  हुआ

कुछ छोटी कविताएं
इक प्रेम का कच्चा धागा ,
कुछ अल्फ़ाज़ों के मोती
पिरो दिया एक साथ ,
बन गया गीत नया

हर वसंत के बाद
ऊष्णता लील गयी फ़ूलों को,
सृजन का गंध बिखेर धरा पर
रज कण में मिल गयी पंखुरी।


किसे दूं ह्र्दय का पुष्प निराला ,
यौवन चाहे रंग - गंध , जगत
चाहता मादकता अनुपम , और
ज़ेब में भरी हुयी हो
माया की मधुशाला

दिवस के बाद विराम रात्रि,
गति का परिणाम रात्रि
तमस और ज्योति के पथ पर
जीवन का संधान रात्रि 

कदमों की आहट पहचानूँ
आँखों को जुगनू मैं मानू
तू मुझको माने माने
मैं तुझको रब जैसा मानूं

बस कदम बढ़ाना याद मुझे
चलते ही जाना याद मुझे
अपनी किस्मत अपने हाथों है यारों
रोज लकीरों को झुठलाना याद मुझे \

तेरी याद के बादल छंटेंगे
फिर विरह की धूप होगी
आसमाँ में चाँद - तारे
घर मेरे वीरानियाँ ही
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आशुतोष कुमार झा