Saturday 9 July 2011

कवितायें

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नहीं जान पाया कब तुमने हृदय छुआ
नहीं जान पाया कब तुमसे प्रेम हुआ 

उचटा था मन ,
भर कर जीवन
आँखों की सरिता से तुमने
भीतर कहीं प्रवेश किया।

मीठा सा इक दर्द कहीं महसूस हुआ
नहीं जान पाया कब तुमसे प्रेम हुआ

बने पलक बिछौना ,
हुआ मुश्किल जीना
साँसों में भर कर सुवास ,
फूटा वसंत कब पहली बार

कब सावन की बूंदों का संस्पर्श हुआ
नहीं जान पाया कब तुमसे प्रेम हुआ

जैसे मोती हों लब पर ,
तू आई रहमत बन कर
नैय्या डगमग मझधार ,
बनीं तुम मेरी खेवनहार

कब तुम्हें सौंप कर खुद को मैं निश्चिन्त हुआ
नहीं  जान  पाया  कब  तुमसे  प्रेम  हुआ

कुछ छोटी कविताएं
इक प्रेम का कच्चा धागा ,
कुछ अल्फ़ाज़ों के मोती
पिरो दिया एक साथ ,
बन गया गीत नया

हर वसंत के बाद
ऊष्णता लील गयी फ़ूलों को,
सृजन का गंध बिखेर धरा पर
रज कण में मिल गयी पंखुरी।


किसे दूं ह्र्दय का पुष्प निराला ,
यौवन चाहे रंग - गंध , जगत
चाहता मादकता अनुपम , और
ज़ेब में भरी हुयी हो
माया की मधुशाला

दिवस के बाद विराम रात्रि,
गति का परिणाम रात्रि
तमस और ज्योति के पथ पर
जीवन का संधान रात्रि 

कदमों की आहट पहचानूँ
आँखों को जुगनू मैं मानू
तू मुझको माने माने
मैं तुझको रब जैसा मानूं

बस कदम बढ़ाना याद मुझे
चलते ही जाना याद मुझे
अपनी किस्मत अपने हाथों है यारों
रोज लकीरों को झुठलाना याद मुझे \

तेरी याद के बादल छंटेंगे
फिर विरह की धूप होगी
आसमाँ में चाँद - तारे
घर मेरे वीरानियाँ ही
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आशुतोष कुमार झा

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