ग़ज़ल
इस कदर जर्रे को मत ठुकराईये ।
हुक्मरानों की तरह मत पेश आईये ॥
हो अगर संजीदा तो दुश्मन भी काम का ।
मौका पड़े तो दुश्मनी भी आज़माईये ॥
कांटों से ,ज़ख़्म से , सितम से टूटते नहीं ।
दुर्गम हों रास्ते तभी भी मुस्कुराइये ॥
उठ जाए ना कहीं दोस्तों से ही यकीं।
ऐसे न दोस्ती का हक जताईये ॥
प्यार में बंदिश नहीं कोई मैं मानता ।
रूठिये बेशक मगर फिर मान जाईये ।।
ऐसे सवाल जिनसे बढ़ती हों उलझनें ।
मत पूछिये थोड़ा तो तरस खाईये ॥
मुंसिफ भी, मुजरिम भी दोनों हैं साथ-साथ ।
इंसाफ का तकाजा अब भूल जाईये ।।
अब इन्क़लाब मुमकिन लगता नहीं मुझे ।
फिर राज घाट चलिये और भजन गाईये ॥
अपना था मुकद्दर जो, किसी गैर को सौंपा ।
सरकार बदलिये या खुद ही बदल जाईये ॥
----- आशुतोष कुमार झा
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