Sunday 4 September 2011

एक कविता महंगाई के नाम

आये दिन बहार के


दालों की दस्त चालू
चढ़ा   चाँद   आलू
आटे  ने  कहा  बहना,
चावल से बच के रहना
चीनी गयी है सबको
अभी चाँटा मार के
आये दिन बहार के
आये दिन बहार के॥

लहसुन ने की सगाई,
बेटी    हुई   पराई
गोभी ने पटका है सर,
बैंगन  के  उगे हैं पर
प्याज़ गया दर्द का
रिश्ता  उभार  के,
आये दिन बहार के
आये दिन बहार के॥

जब से गरम मसाले,
हल्दी ने बदले पाले
थाली का रंग फ़ीका
मिर्ची का भाव तीखा,
डायटिंग का सोच रक्खो
फ़ीवर   उतार   के
आये दिन बहार के
आये दिन बहार के॥


सरसों ने बदला पाला
डीज़ल ने डाका डाला
क्या रांग है क्या फ़ेयर
महँगाई   टॉप   गेयर
सूली पे चढ़ी जनता
सबको  पुकार  के
आये दिन बहार के
आये दिन बहार के॥


मैडम जी बेदरद हैं
सरदार जी फ़िसड्डी
सरकार  सारी  रद्दी
जबसे  चढ़े  हैं गद्दी,
रख दिया है अपना
कचूमर निकाल के,
आये दिन बुहार के
आये दिन पछाड़ के॥
-- आशुतोष कुमार झा
व्याख्याता, हिन्दी विभाग.
मिसेज़ के.एम.पी.एम.इण्टर कॉलेज.
बिष्टुपुर, जमशेदपुर ८३१००१











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